Monday, 23 January 2012

कभी सुनना नहीं


कभी  सुनना   नहीं   चाहें   सुना   कर  भागते  हैं  लोग |
कहाँ महफ़िल में अब रस्म-ए -अदब को मानते हैं लोग ||

हमेशा   जोश   में   आकर   तो  सीना  तानते  हैं  लोग |
मगर  हालात  की  उंगली  पे  फिर  भी नाचते हैं लोग ||

मदद के ज़िक्र पर महफ़िल में उठ जाते हैं सबके हाथ |
सवाल उठता है पैसे का तो बस मुंह   ताकते  हैं  लोग ||

बज़ाहिर   तो   मिलेंगे   आप   से  सब  गर्म  जोशी  से |
तो फिर दिल में हसद का जानवर क्यूँ पालते हैं  लोग ||

छुपा   कर   आप  ख़ुद  को  रख  रहे  हो  रोज़  परदे  में |
नहीं    नादान    इतने   सब  हक़ीक़त  जानते  हैं  लोग ||

किया हासिल जो क़द उसने तो कद कितना किया होगा |
अभी  भी  ज़र  से  ही  इंसान  का  क़द  नापते  हैं   लोग ||

सभी   अपने   तरीक़े    से   मुझे   करते   हैं   इस्तमाल |
न   जाने   कैसे   मज्बूरी   को   मेरी   भांपते   हैं   लोग ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Thursday, 12 January 2012

ज़ुर्म क्या है


ज़ुर्म  क्या  है  बता  दीजिये |
फिर जो चाहे सज़ा  दीजिये ||

हम तो हो जायेंगे मालामाल |
बस  ज़रा  मुस्कुरा  दीजिये  ||

क्या  कहें  आपकी  शान  में |
कुछ हमें भी  सुझा  दीजिये ||

बद्र    देखेंगे  नज़दीक    से |
रुख़  से  पर्दा  हटा  दीजिये ||

हमने  शिकवे  भुलाए सभी |
आप भी अब भुला  दीजिये ||

आज  तो  जश्न  की  रात  है |
आप  भी  गुनगुना  दीजिये ||

ज़ख्म  हो  जायेंगे  फिर  हरे |
रोक  बाद -ए -सबा  दीजिये ||

इश्क़ है ग़र ग़ज़ल में  रदीफ़ |
हुस्न  को  क़ाफ़िया  दीजिये ||

चंद घड़ियाँ शब–ए-वस्ल की |
अब तो करने ख़ता  दीजिये ||

शेर पर मुंह से ग़र दो न दाद |
तालियाँ  ही   बजा   दीजिये ||

लोग  डरते  हैं  सच  से  यहाँ |
आइना  मत  दिखा  दीजिये ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 11 January 2012

खेल मैं मात


खेल  में   मात  हो  चुकी  कब  की |
घर चलो रात हो  चुकी  कब  की ||

आ  गया वक़्त अब सिमटने का |
काम  की  बात  हो चुकी कब की ||

मैं   पपीहे   सा  रह  गया  प्यासा |
जम के बरसात हो चुकी कब की ||

सिर्फ़   अब    इन्हिसार  में  तेरे |
मेरी  ये ज़ात हो चुकी  कब  की ||


 रोशनी   है  कहाँ  अकेली  अब |
तीरगी साथ  हो  चुकी कब  की ||


मुख़्तसर सी थी ज़िंदगी से  जो |
वो मुलाक़ात हो चुकी कब  की || 

वो  नहीं  आ  रहे  अयादत  को |
फोन पर बात हो चुकी कब की || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 4 January 2012

मिलने आये


मिलने    आये  फूलों  से  |
दामन  उलझा  शूलों  से ||

बेबस    लंगड़े    लूलों   से |
क्यूँ    बैठे    माज़ूलों    से ?

अब तक क्या सीखा हमने ?
जीवन   की  इन  भूलों  से ||

मीठे    नग़में    ग़ायब   हैं |
सावन   के  उन झूलों   से ||

बेमौसिम बहलाओ   अब |
दिल काग़ज़ के फूलों  से ||

जीना   उसको  आता  है |
जो वाक़िफ़ मअमूलों से ||

सब के सब ज़रदारों  को |
ख़तरा   है  महसूलों   से ||

बच्चे क्या टीचर भी गुम |
 सरकारी   स्कूलों      से ||

झगड़ा  तो  माली  से  था |
हम लड़  आये  फूलों  से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 


Tuesday, 3 January 2012

ज़िंदगी के सफ़र में


ज़िंदगी  के  सफ़र  में  अकेले  रहे  जिसकी  थी  आर्ज़ू  वो मिला ही नहीं |
लोग मिलने को यूँ तो हज़ारों मिले पर नज़र में तो कोई  टिका  ही  नहीं ||

बदगुमानी  में  खोया  रहा  बाग़बां   बदसलूकी   गुलों  से  यूँ  महंगी  पडी |
मौसमे गुल तो आकर चला भी गया फूल लेकिन चमन में  खिला ही नहीं ||

ज़िंदगी  के  बने  एक  फुटपाथ  पर  मैं  सजाता  रहा  अपनी   दूकान  को |
आये कितने ख़रीदार शाम -ओ -सहर कोई सामान फिर भी बिका ही नहीं ||

सामने   वो   हमारे   यूँ    बैठे   रहे   फासिल: भी  ज़ियादा  न  था  बीच  में |
हम  लरज़ते  रहे  होंठ  हिलते  रहे एक  भी  लफ्ज़   उनसे   कहा  ही  नहीं ||

मुफ़लिसी   से   परेशान   वो  एक  माँ  अब जिए या  मरे क्या  करे   फ़ैस्ल:|
भूखे  बच्चें  सभी  ख़ाली डिब्बें सभी क्या पकायेगी जब कुछ  बचा  ही नहीं ||

एक  घायल  सा  मैं  था  सड़क  पर  पडा लोग  आये  तमाशाईयों   की  तरह |
लोग  जल्दी  में  थे  सब ही चलते  बने  जिसको  आवाज़ दी वो रुका ही नहीं ||

किससे क्या कुछ कहें कौन किसकी सुने अपने -अपने में सब लोग महदूद हैं |
ख़ुद की ख़ुद को सुना दिल तू रूदाद -ए -ग़म सुनने वाला तो कोई रहा ही नहीं || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी     

Monday, 2 January 2012

कभी इस अंजुमन


कभी  इस  अंजुमन  में  मैं  कभी  उस  अंजुमन   में  मैं |
कहूँ   जीवन  के   एहसासात  सब  शेरो -सुखन   में  मैं ||

बंधा अब तक नहीं इश्क़ -ओ -महब्बत की रसन में मैं |
उलझ  कर  रह   न  पाया  हुस्न के  भी  बांकपन में मैं ||

दिनों -दिन  घुसता  जाता  हूँ   गरानी के   दहन  में मैं |
बता  मेरे    ख़ुदा     कैसे    जिऊँ   एसे  वतन   में  मैं ||

बड़ी ही  सादगी से अपने दिल  की  बात  को अक्सर |
सजा  कर पेश करता  हूँ  ख़्यालों  के   वसन  में   मैं ||

समझ पाया नहीं कोई  मेरे   जज़्बात    की   क़ीमत |
हमेशा बेंचू अपने  आप  को  सस्ते   समन   में   मैं ||

मेरी   तंगदस्ती  से  आजिज  मेरे बच्चें   लड़े  बैठे |
अकेला  तप  रहा  तन्हाइयों  की अब तपन  में मैं ||

अगरचे राहतों का सिलसिला अब तक भी जारी है |
मगर जी तो रहा अब भी ग़रीबी  की  घुटन  में  मैं ||

मुझे  तो प्यार है दुन्या की सारी   ही   ज़बानों   से |
बराबर का दिखाता हूँ यक़ीं गंगों -जमन   में    मैं ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी