Tuesday, 3 January 2012

ज़िंदगी के सफ़र में


ज़िंदगी  के  सफ़र  में  अकेले  रहे  जिसकी  थी  आर्ज़ू  वो मिला ही नहीं |
लोग मिलने को यूँ तो हज़ारों मिले पर नज़र में तो कोई  टिका  ही  नहीं ||

बदगुमानी  में  खोया  रहा  बाग़बां   बदसलूकी   गुलों  से  यूँ  महंगी  पडी |
मौसमे गुल तो आकर चला भी गया फूल लेकिन चमन में  खिला ही नहीं ||

ज़िंदगी  के  बने  एक  फुटपाथ  पर  मैं  सजाता  रहा  अपनी   दूकान  को |
आये कितने ख़रीदार शाम -ओ -सहर कोई सामान फिर भी बिका ही नहीं ||

सामने   वो   हमारे   यूँ    बैठे   रहे   फासिल: भी  ज़ियादा  न  था  बीच  में |
हम  लरज़ते  रहे  होंठ  हिलते  रहे एक  भी  लफ्ज़   उनसे   कहा  ही  नहीं ||

मुफ़लिसी   से   परेशान   वो  एक  माँ  अब जिए या  मरे क्या  करे   फ़ैस्ल:|
भूखे  बच्चें  सभी  ख़ाली डिब्बें सभी क्या पकायेगी जब कुछ  बचा  ही नहीं ||

एक  घायल  सा  मैं  था  सड़क  पर  पडा लोग  आये  तमाशाईयों   की  तरह |
लोग  जल्दी  में  थे  सब ही चलते  बने  जिसको  आवाज़ दी वो रुका ही नहीं ||

किससे क्या कुछ कहें कौन किसकी सुने अपने -अपने में सब लोग महदूद हैं |
ख़ुद की ख़ुद को सुना दिल तू रूदाद -ए -ग़म सुनने वाला तो कोई रहा ही नहीं || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी     

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