ज़िंदगी के सफ़र में अकेले रहे जिसकी थी आर्ज़ू वो मिला ही नहीं |
लोग मिलने को यूँ तो हज़ारों मिले पर नज़र में तो कोई टिका ही नहीं ||
बदगुमानी में खोया रहा बाग़बां बदसलूकी गुलों से यूँ महंगी पडी |
मौसमे गुल तो आकर चला भी गया फूल लेकिन चमन में खिला ही नहीं ||
ज़िंदगी के बने एक फुटपाथ पर मैं सजाता रहा अपनी दूकान को |
आये कितने ख़रीदार शाम -ओ -सहर कोई सामान फिर भी बिका ही नहीं ||
सामने वो हमारे यूँ बैठे रहे फासिल: भी ज़ियादा न था बीच में |
हम लरज़ते रहे होंठ हिलते रहे एक भी लफ्ज़ उनसे कहा ही नहीं ||
मुफ़लिसी से परेशान वो एक माँ अब जिए या मरे क्या करे फ़ैस्ल:|
भूखे बच्चें सभी ख़ाली डिब्बें सभी क्या पकायेगी जब कुछ बचा ही नहीं ||
एक घायल सा मैं था सड़क पर पडा लोग आये तमाशाईयों की तरह |
लोग जल्दी में थे सब ही चलते बने जिसको आवाज़ दी वो रुका ही नहीं ||
किससे क्या कुछ कहें कौन किसकी सुने अपने -अपने में सब लोग महदूद हैं |
ख़ुद की ख़ुद को सुना दिल तू रूदाद -ए -ग़म सुनने वाला तो कोई रहा ही नहीं ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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