कभी सुनना नहीं चाहें सुना कर भागते हैं लोग |
कहाँ महफ़िल में अब रस्म-ए -अदब को मानते हैं लोग ||
हमेशा जोश में आकर तो सीना तानते हैं लोग |
मगर हालात की उंगली पे फिर भी नाचते हैं लोग ||
मदद के ज़िक्र पर महफ़िल में उठ जाते हैं सबके हाथ |
सवाल उठता है पैसे का तो बस मुंह ताकते हैं लोग ||
बज़ाहिर तो मिलेंगे आप से सब गर्म जोशी से |
तो फिर दिल में हसद का जानवर क्यूँ पालते हैं लोग ||
छुपा कर आप ख़ुद को रख रहे हो रोज़ परदे में |
नहीं नादान इतने सब हक़ीक़त जानते हैं लोग ||
किया हासिल जो क़द उसने तो कद कितना किया होगा |
अभी भी ज़र से ही इंसान का क़द नापते हैं लोग ||
सभी अपने तरीक़े से मुझे करते हैं इस्तमाल |
न जाने कैसे मज्बूरी को मेरी भांपते हैं लोग ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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